मंगलवार, 29 जून 2010

मंहगाई पर सरकार ध्यान दे

पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने कई सरकारी निकायों को निजी हाथों में सौंप कर उनका निजीकरण पहले ही कर चुकी है जिसका खामियाजा देश की वह जनता भुगत रही है जो गरीबी रेखा के आस-पास से गुजरती है और जिसकी संख्या देश की आबादी का एक तिहाई से नीचे तो नहीं ही है। दिल्ली,मुंबई,कोलकाता,मद्रास और बंगलौर जैसे महानगरों में रहने वाले लोगों का जिस प्रकार का जीवन स्तर है वही जीवन स्तर इन महानगरों से दूर बसने वाले छोटे नगरों,उप-नगरों,कस्बों और गावों में जी रहे उन लोगों का नहीं है। इन महानगरों में बसने-रहने वाला निम्न वर्ग,वहां के बसने वाले मध्यम वर्ग की तुलना में आर्थिक धरातल पर उनसे सबल होता है।उच्च वर्ग-मध्यम-वर्ग और निम्न-वर्ग की आर्थिक स्थितियों में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है इसे समझना इन परिस्थितियों में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब मंहगाई का स्तर अपनी सीमा पार कर चुका हो। आर्थिक रूप से उच्च -वर्ग के लिए मंहगाई कान पर जूं रेंगने के जैसी है मध्यम - वर्ग के लिए तनाव का कारण बन सकती है लेकिन निम्न वर्ग के लिए आज अस्तित्व का प्रश्न बन चुकी है। महानगरों में बसने वाला निम्न वर्ग सामान्यतया अपनी शारीरिक क्षमता को ही अर्थ में परिवर्तित करता है,गिने-चुने ही होंगे जो सरकारी महकमें में काम कर के भविष्य में पेंशन का इन्तेजाम कर पाने में सक्षम होंगे। ऐसी स्थिति में यदि खाने -पीने- जीने की रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में इस तरह बेतहाशा वृद्धि हो जाएगी तो महानगरों से लेकर दूर-दराज़ के गावों में बसने वाली जनता का भविष्य क्या होगा।

सरकार को चाहिए की मंहगाई की लगाम अपने हाथों में रक्खे ताकि बेतहाशा बढ़ने वाली मंहगाई भूखे शेर की तरह दौड़ती हुई जनता को और उसके भविष्य को न लील जाये। जीवन के लिए जो मूलभूत आवश्यकताएं और मांग स्पष्ट हैं सरकार उन्हें अपने नियंत्रण में रक्खे तो सामाजिक सामंजस्य बना रहेगा,नहीं तो भूखी जनता के भीतर का असंतोष अशांति, आत्महत्या,सामाजिक अपराध जैसे रूपों में परिवर्तित होने लगेगा।

सोमवार, 7 जून 2010

यह कैसा न्याय है

पिछले कुछ समय से अदालतों के न्यायपूर्ण फैसलों से लगने लगा था कि चलो जंग खा रहे लोकतंत्र का एक स्तम्भ तो दुरुस्त हो रहा है। उम्मीद होने लगी थी कि अन्य स्तम्भ भी देखा-देखी दुरुस्त हो जायेंगे और नहीं हुए तो न्यायपालिका उन्हें सुधार ही देगी। भारत में औद्योगिक इतिहास की बहुत बड़ी दुर्घटना के रूप में भोपाल गैस कांड को याद किया जाता रहेगा। आज इस दुर्घटना पर २५ वर्ष बाद अदालत ने हजारों बेगुनाहों की मौत के लिए मात्र ७ को दोषी माना और जिस तरह २-२ वर्ष की सजा,१-१ लाख रूपये का जुर्माना लगाया उससे तो न्याय पर भरोसा लगाये उन पीड़ित परिवारों के साथ-साथ पूरे देश की आह निकल गयी। दोषी करार दिए गए गुनाहगारों को २५-२५ हजार के निजी मुचलके पर छोड़ कर अदालत ने सचमुच आज एक एतिहासिक न्याय पद्धति का मार्ग प्रशस्त किया है। अदालत द्वारा दिया गया आज का न्याय मानवीय जीवन के प्रति एक घिनौना मज़ाक़ है,एक ऐसा न्याय जो स्वयं न्याय के प्रति बहुत बड़ा अन्याय है।

भोपाल की यूनियन कार्बाइड कंपनी का चेयरमैन वारेन एंडरसन इस मुक़दमे का अहम् अभियुक्त अदालत और सी बी आई के दस्तावेज़ में भगोड़ा है ,भारत सरकार को अमेरिका ने बता दिया कि वह उन्हें वहां नहीं मिल रहा है ,सोचने कि बात ये है कि जो अमेरिका दूर अन्य देशो में रह रहे आतंकवादियों को ढूंढ निकालता है वह अपने ही देश में एंडरसन को नहीं ढूंढ पा रहा है।इस एंडरसन की कंपनी को अदालत की तरफ से ५ लाख का जुर्माना लगाया गया है ,इस पहलू को जानते हुए की कंपनी को पता था की प्लांट में कई कमियां हैं दुर्घटना हो सकती है फिर भी असावधानी की गई और इतनी बड़ी त्रासदी हुई।

दुर्घटना के मुख्य गवाहों के बजाय १७८ गवाह लाना ताकि तकनीकी पेचीदगी के कारण न्याय मिलाने में देरी हो,विरोध के बाद भी सभी को अदालत में न प्रस्तुत करना और आज २५ वर्ष के बाद न्याय देते समय न्याय के नाम पर ऐसा छलावा करना क्या मानव जीवन और मानवाधिकारों का हनन नहीं है।न्याय व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास रखने वालो के लिए आज का अदालती फैसला किसी सदमें से कम नहीं है।