पिछले कुछ समय से अदालतों के न्यायपूर्ण फैसलों से लगने लगा था कि चलो जंग खा रहे लोकतंत्र का एक स्तम्भ तो दुरुस्त हो रहा है। उम्मीद होने लगी थी कि अन्य स्तम्भ भी देखा-देखी दुरुस्त हो जायेंगे और नहीं हुए तो न्यायपालिका उन्हें सुधार ही देगी। भारत में औद्योगिक इतिहास की बहुत बड़ी दुर्घटना के रूप में भोपाल गैस कांड को याद किया जाता रहेगा। आज इस दुर्घटना पर २५ वर्ष बाद अदालत ने हजारों बेगुनाहों की मौत के लिए मात्र ७ को दोषी माना और जिस तरह २-२ वर्ष की सजा,१-१ लाख रूपये का जुर्माना लगाया उससे तो न्याय पर भरोसा लगाये उन पीड़ित परिवारों के साथ-साथ पूरे देश की आह निकल गयी। दोषी करार दिए गए गुनाहगारों को २५-२५ हजार के निजी मुचलके पर छोड़ कर अदालत ने सचमुच आज एक एतिहासिक न्याय पद्धति का मार्ग प्रशस्त किया है। अदालत द्वारा दिया गया आज का न्याय मानवीय जीवन के प्रति एक घिनौना मज़ाक़ है,एक ऐसा न्याय जो स्वयं न्याय के प्रति बहुत बड़ा अन्याय है।
भोपाल की यूनियन कार्बाइड कंपनी का चेयरमैन वारेन एंडरसन इस मुक़दमे का अहम् अभियुक्त अदालत और सी बी आई के दस्तावेज़ में भगोड़ा है ,भारत सरकार को अमेरिका ने बता दिया कि वह उन्हें वहां नहीं मिल रहा है ,सोचने कि बात ये है कि जो अमेरिका दूर अन्य देशो में रह रहे आतंकवादियों को ढूंढ निकालता है वह अपने ही देश में एंडरसन को नहीं ढूंढ पा रहा है।इस एंडरसन की कंपनी को अदालत की तरफ से ५ लाख का जुर्माना लगाया गया है ,इस पहलू को जानते हुए की कंपनी को पता था की प्लांट में कई कमियां हैं दुर्घटना हो सकती है फिर भी असावधानी की गई और इतनी बड़ी त्रासदी हुई।
दुर्घटना के मुख्य गवाहों के बजाय १७८ गवाह लाना ताकि तकनीकी पेचीदगी के कारण न्याय मिलाने में देरी हो,विरोध के बाद भी सभी को अदालत में न प्रस्तुत करना और आज २५ वर्ष के बाद न्याय देते समय न्याय के नाम पर ऐसा छलावा करना क्या मानव जीवन और मानवाधिकारों का हनन नहीं है।न्याय व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास रखने वालो के लिए आज का अदालती फैसला किसी सदमें से कम नहीं है।
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